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Sandhya - संध्या (ब्रह्मयज्ञ)

संध्या (ब्रह्मयज्ञ)

    गायत्री मन्त्र

    ओ३म् भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

    धियो यो न: प्रचोदयात् ।। ऋग्वेद मण्डल ३, सूक्त ६२, मन्त्र १०; यजुर्वेद ३६.३

    शब्दार्थ:

    ओ३म्= यह ईश्वर का मुख्य और सर्वोत्तम नाम है। इसका अर्थ है- सबकी रक्षा करने वाला। यह शब्द ’, ‘’ तथा ‘म्’ के संयोग से बना है। ‘’ के अर्थ हैं- विराट्, अग्नि, विश्व आदि। ‘’ के अर्थ हैं- हिरण्यगर्भ, वायु, तेजस् आदि और ‘म्’ के अर्थ हैं-  ईश्वर, आदित्य, प्राज्ञ आदि। इस प्रकार ‘ओ३म्’नाम से ईश्वर के सब नामों का ग्रहण हो जाता है।
    भू:= प्राणाधार, प्राणों से भी प्यारा।
    भुव:= सब दु:खों का नाश करने वाला
    स्व:= स्वयं सुख स्वरूप और सुख देने करने वाले। तूने हमें उत्पन्न किया, पालन कर रहा है तू।
    तत्=  उस।
    सवितु:= समस्त संसार को उत्पन्न करने वाले।
    वरेण्यम्= ग्रहण करने योग्य, अति श्रेष्ठ।तुझसे ही पाते प्राण हम, दु:खियों के दु:ख हरता है तू।।
    भर्ग:= शुद्ध स्वरूप।
    देवस्य= ईश्वर का।
    धीमहि= हम ध्यान करें।
    धिय:=  बुद्धियों को।
    य:= जो पूर्वोक्त ईश्वर है वह।
    := हमारी।
    प्रचोदयात्= शुभकर्मों में प्रेरित करे।

    भावार्थ- हे सबके रक्षक ईश्वर! आप सबके प्राणाधार हो, अत: प्राणों से प्रिय हो। आप दु:खों वाला। को दूर करके सुख देते हो। यह चराचर सारा संसार आपने ही बनाया है। हम आपके ग्रहण तत्=  उस। करने योग्य, अति श्रेष्ठ और शुद्ध स्वरूप का ध्यान करते हैं। आप हमारी बुद्धियों को शुभ सवितु:= समस्त संसार को उत्पन्नकर्म करने के लिए प्रेरित करो।

    तूने हमें उत्पन्न किया, पालन कर रहा है तू।
    तुझसे ही पाते प्राण हम, दु:खियों के दु:ख हरता है तू।।
    तेरा महान् तेज है, छाया हुआ सभी स्थान।
    सृष्टि की वस्तु-वस्तु में, तू हो रहा है विद्यमान्।। तेरा ही धरते ध्यान हम, मांगते तेरी दया।

    आचमन मन्त्र

    निम्नलिखित मन्त्र का एक बार उच्चारण करके दायीं हथेली में जल लेकर तीन आचमन करें (जल को पीयें)। जल की मात्रा इतनी हो कि एक आचमन से हृदय तक जल चला जाये। आचमन कण्ठ में विद्यमान् कफ और पित्त को दूर करता है। यदि जल न हो तो भी सन्ध्या अवश्य करें।

    ओ३म्। शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।

    शंयोरभि स्रवन्तु न: ।।       ऋग्वेद १०.९.४, यजुर्वेद ३६.१२

    भावार्थ- हे दिव्य गुण वाले, सर्वव्यापक प्रभो! आप हमारी मन: कामनायें पूर्ण करके हमें परम आनन्द प्रदान करो और हमारे ऊपर चारों ओर से सुख और शान्ति की वर्षा करो।

    अङ्गस्पर्श मन्त्र

    निम्नलिखित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए बायीं हथेली में जल लेकर दाहिने हाथ की दो बीच की अंगुलियों- मध्यमा और अनामिका से जल का स्पर्श करके अपने अङ्गों का स्पर्श करें-

    ओ३म् वाक् वाक्। इससे मुख के दायें और फिर बायें भाग का।

    ओ३म् प्राण: प्राण:। इससे नाक के दायें और फिर बायें भाग का।

    ओ३म् चक्षुश्चक्षु:। इससे दायीं और फिर बायीं आँख का।

    ओ३म् श्रोत्रम् श्रोत्रम्। इससे दायें और फिर बायें कान का।

    ओ३म् नाभि:। इससे नाभि का।

    ओ३म् हृदयम्। इससे हृदय का।

    ओ३म् कण्ठ:। इससे कण्ठ का।

    ओ३म् शिर:। इससे सिर का।

    ओ३म् बाहुभ्यां यशोबलम्।  इससे दायीं और फिर बायीं भुजा का।

    ओ३म् करतल करपृष्ठे ।। इससे दोनों हथेलियों के ऊपर व नीचे स्पर्श करें।

    भावार्थ- हे ईश्वर! आपकी कृपा से हमारे शरीर के सभी अङ्ग और इन्द्रियाँ बलशाली हों, जिससे हम स्वस्थ और यशस्वी हो जायें।

    मार्जन मन्त्र

    मार्जन का अर्थ है-  शुद्धि, पवित्रता अर्थात् शरीर को शुद्ध एवं पवित्र करने के मन्त्र। बायीं हथेली में पुन: जल लेकर दायें हाथ की मध्यमा और अनामिका अंगुलियों से निम्नलिखित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए अपने अङ्गों पर जल छिडक़ें और कामना करें कि मेरे सभी अङ्ग शुद्ध पवित्र रहें।

    ओ३म् भू: पुनातु शिरसि। इससे सिर पर।

    ओ३म् भुव: पुनातु नेत्रयो:। इससे दायीं और फिर बायीं आँख पर।

    ओ३म् स्व: पुनातु कण्ठे। इससे कण्ठ पर।

    ओ३म् मह: पुनातु हृदये। इससे हृदय पर ।

    ओ३म् जन: पुनातु नाभ्याम्। इससे नाभि पर।

    ओ३म् तप: पुनातु पादयो:। इससे दायें और फिर बायें पैर पर।

    ओ३म् सत्यं पुनातु पुन: शिरसि। इससे सिर पर।

    ओ३म् खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र।। इससे सारे शरीर पर जल के छींटे दें।

    भावार्थ-

    हे ईश्वर! आप सबके प्राणों के आधार, दु:ख विनाशक, सुख स्वरूप, सबसे महान्, सबके उत्पत्तिकर्त्ता, ज्ञान स्वरूप, दुष्टों को सन्ताप देने वाले, सत्य स्वरूप और सर्वव्यापक हो। आप कृपा करके हमारे शरीर और इन्द्रियों के दोषों को दूर करके पवित्र बनाओ।

    प्राणायाम मन्त्र

    प्राण+आयाम= प्राणों का विस्तार। निम्नलिखित मन्त्र बोलकर तीन प्राणायाम करें। प्राणायाम के अनेक भेद हैं, जो सुयोग्य शिक्षक से सीख लेने चाहिएं। यहाँ एक सरल विधि प्रस्तुत है - सीधे बैठकर ध्यान को नाक के सामने श्वास पर केन्द्रित करें। श्वास को पूरी शक्ति से बाहर निकालें और यथाशक्ति बाहर ही रोकें, फिर धीरे -धीरे श्वास अन्दर ले लें और यथाशक्ति अन्दर रोकें। यह एक प्राणायाम हुआ। इसी तरह तीन प्राणायाम करें।

    ओ३म् भू:। ओ३म् भुव:। ओ३म् स्व:। ओ३म् मह:।

    ओ३म् जन:। ओ३म् तप:। ओ३म् सत्यम् ।।

    तैत्तिरीय आरण्यक प्र० १०. अनु. २७

    भावार्थ- हे ईश्वर! आप प्राण स्वरूप, दु:ख विनाशक, सुख स्वरूप, सबसे महान्, सबको उत्पन्न करने वाले, ज्ञान स्वरूप और सत्य स्वरूप हो। आपके इन गुणों का ध्यान करके उपासना करता हुआ मैं दोषों का परित्याग कर रहा हूँ।

    अघमर्षण मन्त्र

    अघ= पाप। मर्षण= मसलना, नष्ट करना अर्थात् पाप को नष्ट करने की कामना के मन्त्र। इन मन्त्रों में बताये गये सृष्टि क्रम का विचार करें और निश्चय करें कि इस सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार करने वाला ईश्वर है। वह सर्वव्यापक, न्याय करने वाला, सर्वत्र-सर्वदा सब जीवों को कर्मों के अनुसार फल दे रहा है। उसके न्याय से कोई बच नहीं सकता। वह शुभ और अशुभ कर्मों का फल  सुख और दु:ख के रूप में अवश्य देगा। इस प्रकार कर्मों के द्रष्टा ईश्वर को निश्चित मानकर मन, वचन और कर्म से कभी पाप न करें।

    ओ३म्। ऋतञ्च सत्यंचाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।

    ततो रात्र्यजायत तत: समुद्रो अर्णव: ।।१।।

    ओ३म्। समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत।

    अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ।।२।।

    ओ३म्। सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्।

    दिवञ्च पृथिवीञ्चान्तरिक्षमथो स्व: ।।३।।

    ऋग्वेद १०.१९०.१-३

    भावार्थ - सर्वशक्तिमान् ईश्वर ने इस सृष्टि से पहले भी चेतन और अचेतन सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण किया था। उसी ने प्रलय काल रूपी रात्री बनायी थी। प्रलय के बाद फिर चेतन और अचेतन सृष्टि का निर्माण किया। इसमें द्युलोक, अन्तरिक्ष लोक, पृथिवी लोक, सूर्य, चन्द्रमा आदि नक्षत्र, दिन, रात, क्षण, मुहूर्त, मेघ, समुद्र आदि सब कुछ पहले के समान ही ईश्वर ने बनाये हैं।

    आचमन मन्त्र

    निम्नलिखित मन्त्र को एक बार बोलकर पूर्ववत् तीन बार आचमन करें।

    ओ३म्। शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये।

    शंयोरभि स्रवन्तु न:।      ऋग्वेद १०.९.४, यजुर्वेद ३६.१२

    भावार्थ- हे दिव्य गुण वाले, सर्वव्यापक प्रभो! आप हमारी मन: कामनायें पूर्ण करके हमें परम आनन्द प्रदान करो और हमारे ऊपर चारों ओर से सुख और शान्ति की वर्षा करो।

    मनसा परिक्रमा मन्त्र

    मनसा= मन के द्वारा। परिक्रमा= भ्रमण करना अर्थात् मन द्वारा सब दिशाओं में परिक्रमा करके ईश्वर की सर्वव्यापक सत्ता का अनुभव करना। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, नीचे और ऊपर सब जगह उसी की सत्ता है।

    ओ३म्। प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषव:।

    तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

    यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म: ।।१।।

    अथर्व ३.२७.१

    भावार्थ-

    पूर्व दिशा में ज्ञान स्वरूप ईश्वर हमारा स्वामी है। वह बन्धनों से रहित और सब प्रकार से हमारी रक्षा करने वाला है। सूर्य की किरणें बाण के समान हैं, जो रक्षा करती हैं और प्रेरणा देती हैं। ईश्वर के इन गुणों के लिए नमस्कार। सबके स्वामी ईश्वर के लिए नमस्कार। रक्षा करने वाले ईश्वर के लिए नमस्कार। बाणों के लिए नमस्कार अर्थात् बाण के समान सूर्य की किरणों का प्रशंसापूर्वक उपयोग करें। इन सबको एक बार फिर नमस्कार।

    जिस द्वेष भावना से युक्त होकर कोई व्यक्ति हमारे साथ द्वेष करता है अथवा जिस द्वेष भावना से हम दूसरों से द्वेष करते हैं, हे ईश्वर! उसको और उसकी द्वेष भावना को हम आपकी न्याय-व्यवस्था के अधीन करते हैं। भाव यह है कि द्वेष करने वाले को, द्वेष भाव का फल देने के लिए हम आपको सौंपते हैं। आप उनको कर्मों के अनुसार फल देकर न्याय करने की कृपा करें। हम द्वेष भाव के कारण मन, वचन और कर्म से बदले की क्रिया नहीं करेंगे।

    ओ३म्। दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषव:।

    तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

    यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म: ।।२।।          अथर्व ३.२७.२

    भावार्थ- दक्षिण दिशा में परम ऐश्वर्यवान् ईश्वर हमारा स्वामी है। वही कीट, पतङ्ग, बिच्छू आदि के समूह से रक्षा करता है अर्थात् ईश्वर की भक्ति से मनुष्य इन तिर्यक् योनियों में जाने से बच जाता है। ज्ञान, बल, धन और आयु से सम्पन्न पुरुष बाण के समान हैं, जो अपने ज्ञान द्वारा हमें पाप कर्मों से बचाकर धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। शेष पूर्व के समान।

    ओ३म्। प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपति: पृदाकू रक्षितान्नमिषव:।

    तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

    यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म: ।।३।। अथर्व ३.२७.३

    भावार्थ- पश्चिम दिशा में सर्वश्रेष्ठ ईश्वर हमारा स्वामी है। जो सांप, अजगर आदि विषधारी प्राणियों से हमारी रक्षा करता है अर्थात् ईश्वर की भक्ति से मनुष्य इन योनियों में जाने से बच जाता है। अन्न आदि खाद्य पदार्थ बाण के समान हैं, जो हमारी रक्षा करते हैं और प्रेरणा देते हैं। शेष पूर्व के समान।

    ओ३म्। उदीची दिक् सोमोऽधिपति: स्वजो रक्षिताशनिरिषव:।

    तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

    यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म: ।।४।। अथर्व  ३.२७.४

    भावार्थ- उत्तर दिशा में शान्तिदायक गुणों से आनन्द की वर्षा करने वाला ईश्वर हमारा स्वामी है। कभी जन्म न लेने वाला वही हमारा रक्षक है। विद्युत् बाण के समान है, जो रक्षा करती है और प्रेरणा देती है। शेष पूर्व के समान।

    ओ३म्। ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपति: कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषव:।

    तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

    यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म: ।।५।।

    अथर्व ३.२७.५

    भावार्थ- नीचे की दिशा में सर्वव्यापक ईश्वर हमारा स्वामी है। पाप, दोष, बुराइयों को नष्ट करके वही हमारी रक्षा करता है। विविध प्रकार की वनस्पतियाँ बाण के समान हैं, जो पर्यावरण को शुद्ध करके रक्षा करती हैं और प्रेरणा देती हैं। शेष पूर्व के समान।

    ओ३म्। ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपति: श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषव:।

    तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु।

    यो३स्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्म: ।।६।।

    अथर्व ३.२७.६

    भावार्थ- ऊपर की दिशा में ज्ञानवान् तथा विशाल ब्रह्माण्ड का पालन करने वाला ईश्वर हमारा स्वामी है। वही शुद्ध स्वरूप हमारा रक्षक है। वर्षा बाण के समान है, जो रक्षा करती है और प्रेरणा देती है। शेष पूर्व के समान।

    उपस्थान मन्त्र

    उप=समीप। स्थान= बैठना अर्थात् अपने हृदय में ईश्वर का अनुभव करना। निम्नलिखित मन्त्रों का उच्चारण करते हुए अपने आपको सर्वरक्षक, सर्वशक्तिमान् और प्रकाश स्वरूप प्रभु की पवित्र गोद में बैठा हुआ अनुभव करें-

    ओ३म्। उद्वयं तमसस्परि स्व: पश्यन्त उत्तरम्।                                                                     देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ।।१।।                                               ****यजुर्वेद ३५.१४

    शंयोरभि स्रवन्तु न:।      ऋग्वेद १०.९.४, यजुर्वेद ३६.१२

    भावार्थ- हे ईश्वर! आप अज्ञान रूपी अन्धकार से रहित, प्रकाश स्वरूप, चराचर के सञ्चालक, प्रलय के बाद भी विद्यमान रहने वाले, देवों के भी देव और सबसे उत्कृष्ट हो। ऐसी कृपा करो कि हम अच्छे प्रकार श्रद्धा और भक्ति से आपको प्राप्त करें।

    ओ३म्। उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतव:।

    दृशे विश्वाय सूर्यम् ।।२।।                                                                                                                                                           यजुर्वेद ३३.३१

    भावार्थ- सृष्टि की नियमपूर्वक रचना और वेद के मन्त्र तर्क-वितर्क के साथ ईश्वर का ज्ञान व निश्चय अच्छी प्रकार करा रहे हैं। वही जड़ और चेतन समस्त संसार का आधार है। पूर्ण रूप से ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम दिव्य गुण वाले ईश्वर की ही उपासना करें।

    ओ३म्। चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने:।

    आप्रा द्यावा पृथिवी अन्तरिक्षš सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ।।३।।                                                                                             यजुर्वेद ७.४२

    भावार्थ- ईश्वर के गुण, कर्म और स्वभाव आश्चर्यजनक हैं। वह श्रेष्ठ विद्वानों के हृदय में प्रकाशित रहता है। वह सबका आश्रय है। मित्र स्वभाव वाले, श्रेष्ठ आचरण वाले, उत्तम ज्ञान वाले उपासकों का द्रष्टा और दर्शयिता वही है। द्युलोक, पृथिवी लोक, अन्तरिक्ष लोक आदि समस्त संसार का उत्पादक, धारक और रक्षक वही है। वही चराचर संसार का आधार है। ईश्वर के इस स्वरूप का अनुभव मैं यथार्थ रूप से कर रहा हूँ।

    ओ३म्। तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरद:

    शतं जीवेम शरद: शतš श्रृणुयाम शरद: शतं प्रब्रवाम शरद:

    शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयश्च शरद: शतात् ।।४।।

    यजुर्वेद ३६.२४

    भावार्थ- हे ईश्वर! आप सबको देखने वाले तथा सबको मार्ग दिखाने वाले हो। आप ही विद्वानों और उपासकों के हितैषी हो। आप सृष्टि के पूर्व से लेकर सदा विद्यमान रहने वाले हो। आपके शुद्ध स्वरूप को हम सौ वर्षों तक देखते रहें। सौ वर्षों तक आपका ध्यान करते हुए जीवित रहें। सौ वर्षों तक आपके गुण सुनते रहें। सौ वर्षों तक आपके गुणों का प्रवचन करते रहें। सौ वर्षों तक हम दीनता रहित रहें अर्थात् किसी के अधीन न रहें तथा सौ वर्षों के बाद भी हम आपको देखते हुए, आपका ध्यान करते हुए, आपके गुणों को सुनते हुए, आपका गुणगान करते हुए, दीनता रहित होकर जीवित रहें।

    गायत्री मन्त्र

    ओ३म् भूर्भुव: स्व:। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

    धियो यो न: प्रचोदयात् ।।

    समर्पण मन्त्र

    हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृपयाऽनेन जपोपासनादिकर्मणा,

    धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्य: सिद्धिर्भवेन्न: ।।

    भावार्थ- हे दया के सागर ईश्वर! आपकी कृपा से, जो-जो उत्तम कर्म हम लोग करते हैं, वे सब आपको अर्पण हैं। इस जप, उपासना आदि आपकी भक्ति से हमें शीघ्र ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हो।

    नमस्कार मन्त्र

    ओ३म्। नम: शम्भवाय च मयोभवाय च। नम: शङ्कराय च

    मयस्कराय च। नम: शिवाय च शिवतराय च ।।           यजुर्वेद १६.४१

    भावार्थ- हे शान्ति स्वरूप, सुख स्वरूप और आनन्द स्वरूप प्रभो! आप शान्ति, सुख और आनन्द देकर हमारा कल्याण करो। हम बारम्बार आपको नमस्कार करते हैं।

    ओ३म् शान्ति: शान्ति: शान्ति:।

    ।। इति सन्ध्या-उपासना विधि: ।।

    ब्रह्मयज्ञ (सन्ध्या-उपासना) के मन्त्रों का भावार्थ

    हे सत्-चित्-आनन्द स्वरूप ईश्वर! हम उपासक भक्ति भावना से पूरित होकर प्रेम और श्रद्धा से आपकी स्तुति, प्रार्थना और उपासना कर रहे हैं। हमारे ऊपर सुख और शान्ति की वर्षा करके कल्याण करो। मेरा यह शरीर श्रेष्ठ कर्मों का मन्दिर बनकर सदा सुदृढ़ और स्वस्थ रहे। बुद्धि शुद्ध, पवित्र और शुभ संकल्पों वाली हो। हृदय में सत्य, प्रेम, अहिंसा, शान्ति और उदारता का निवास बना रहे।

    हे ईश्वर! आप ही सृष्टि के निर्माता और सञ्चालक हो। आप अग्नि, वायु, पृथिवी, जल, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र आदि समस्त ब्रह्माण्ड को बनाकर धारण और पालन कर रहे हो। हम आपके सर्वव्यापक, न्यायकारी स्वरूप का अपने हृदय मन्दिर में दर्शन करके पाप के आचरण और दुष्कर्मों से सदा दूर रहें।

    हे सर्वव्यापक ईश्वर! पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, नीचे और ऊपर सभी दिशाओं में आप ही हमारे स्वामी हो। आप ही अपनी दिव्य शक्तियों से सभी दिशाओं में हमारी रक्षा करते हो। अत: हम आप को और रक्षा करने वाली आपकी दिव्य शक्तियों को बार-बार प्रणाम करते हैं। सृष्टि के विविध पदार्थ बाण के समान हमारे रक्षक और प्रेरक हैं। उनको भी हम नमस्कार करते हैं अर्थात् इनका उपयोग करते हैं।

    हे ईश्वर! आप हम सबकी द्वेष भावना को नष्ट करने की कृपा करो, जिससे हम सदा आनन्द में रहें। आपके गुण, कर्म और स्वभाव हम अल्प ज्ञानियों के लिए बहुत ही आश्चर्यकारक हैं। ज्ञानी लोग आपके गुणों का गान करते हुए ज्ञान रूपी नेत्रों से आपकी अनुभूति में रम कर सदा आनन्द विभोर रहते हैं।

    हे सुख स्वरूप ईश्वर! हम आपके स्वरूप को सौ वर्षों तक देखते रहें। सौ वर्षों तक आपका ध्यान करते हुए जीवित रहें। सौ वर्षों तक आपके गुणों को सुनते रहें। सौ वर्षों तक आपके गुणों का प्रवचन करते रहें और सौ वर्षों तक हम स्वाधीन होकर जीवन बितायें। इतना ही नहीं; सौ वर्षों के बाद भी हमारा जीवन इसी प्रकार रहे।

    हे दया के सागर! आपकी उपासना भक्ति और आपके जप से हमें धर्म जो सत्य और न्याय का आचरण करना है उसकी, अर्थ जो धर्मपूर्वक पदार्थों की प्राप्ति करना है उसकी,काम- जो धर्म और अर्थ से प्राप्त किये गये पदार्थों का सेवन करना है उसकी तथा मोक्ष मुक्ति की, शीघ्र ही प्राप्ति हो। हम आपको बारम्बार प्रणाम करते हैं। हमें सब प्रकार का सुख और शान्ति देकर मोक्ष रूप आनन्द प्रदान करो। यही विनती है। हे प्रभो! स्वीकार करो- स्वीकार करो- स्वीकार करो।

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