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House Warming (गृह प्रवेश)

गृह प्रवेश

सामान्य होम के बाद निम्न प्रकार से आहुतियाँ दें ।

 

ओ३म् अच्युताय भौमाय स्वाहा।।

पुनः द्वार के सामने बाहर जाकर नीचे लिखे चार मन्त्रों से जलसेचन करे - इससे एक आहुति देकर, ध्वजा का स्तम्भ जिसमें ध्वजा लगाई हो, खड़ा करे और घर के ऊपर चारों कोणों पर चार ध्वजा खड़ी करें तथा कार्यकर्त्ता / गृहपति स्तम्भ खड़ा करके उसके मूल में जल से सेचन करे, जिससे वह दृढ़ रहे।

ओ३म् इमामुच्छ्रयामि भुवनस्य नाभिं वसोर्द्धारां प्रतरणीं वसूनाम्।
इहैव ध्रुवां निमिनोमि शालां क्षेमे तिष्ठतु घृतमुछ्रयमाणा॥1॥

इस मन्त्र से पूर्व द्वार के सामने जल छिड़कावें ।

अश्वावती गोमती सूनृतावत्युच्छ्रयस्व महते सौभगाय।
आ त्वा शिशुक्रन्दत्वा गावो धेनवो वाश्यमाना । । 2 ।।

इस मन्त्र से दक्षिण द्वार के सामने जल छिड़कावें ।

आ त्वा कुमारस्तरुण आ वत्सो जगदैः सह ।
आ त्वा परिस्रुतः कुम्भ आ दध्नः कलशैरुप ।
क्षेमस्य पत्नी बृहती सुवासा रयिं नो धेहि सुभगे सुवीर्यम् ।।3।।

इस मन्त्र से पश्चिम द्वार के सामने जल छिड़कावें।

अश्वावद् गोमदूर्जस्वत् पर्णं वनस्पतेरिव । अभिनः पूर्यता रयिरिदमनुश्रेयो वसानः ।।4।।

इस मन्त्र से उत्तर द्वार के सामने जल छिटकावें ।

तत्पश्चात् सब द्वारों पर पुष्प और पल्लव तथा कदली-स्तम्भ वा कदली के पत्ते भी द्वारों की शोभा के लिए लगाकर, पश्चात्

 

गृहपति- हे ब्रह्मन्! प्रविशामीति । ऐसा वाक्य बोले ।

और ब्रह्मा- वरं भवान् प्रविशतु।। ऐसा प्रत्युत्तर देवे।

और ब्रह्मा की अनुमति से - ओ३म् ऋचं प्रपद्ये शिवं प्रपद्ये ।।

इस वाक्य को बोल के भीतर प्रवेश करे और जो घृत गरम कर, छान सुगन्ध मिलाकर रक्खा हो, उसे पात्र में लेके जिस द्वार से प्रथम प्रवेश करे, उसी द्वार से प्रवेश करके अग्न्याधान, समिदाधान, जलप्रोक्षण, आचमन करके घृत की आघारावाज्य- भागाहुति चार और व्याहृति आहुति चार, नवमी स्विष्टकृत आज्याहुति एक, अर्थात् दिशाओं की द्वारस्थ वेदियों में अग्न्याधान से लेके आहुतिपर्यन्त विधि करके, पश्चात् पूर्वदिशा द्वारस्थ कुण्ड में -

ओ३म् प्राच्या दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा ।
ओ३म् देवेभ्य स्वाह्येभ्यः स्वाहा ।।

इन दो मन्त्रों से पूर्व द्वारस्थ वेदी में दो घृताहुति देवे। वैसे ही-

ओ३म् दक्षिणाया दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा।
ओ३म् देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा ।।

इन दो मन्त्रों से दक्षिण द्वारस्थ वेदी में एक-एक मन्त्र करके दो आज्याहुति और -

ओ३म् प्रतीच्यां दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा ।
ओ३म् देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा ।।

इन दो मन्त्रों से दो आज्याहति पश्चिम दिशा द्वारस्थ कुण्ड में देवें ।

ओ३म् उदीच्यां दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा ।
ओ३म् देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा॥

इनसे उत्तर दिशास्थ वेदी में दो आज्याहुति देवे । पुनः मध्यशालास्थ वेद के समीप जाके स्व-स्व दिशा में बैठ के-

ओ३म् ध्रुवायां दिशः शालाया नमो महिम्ने स्वाहा ।

 

ओ३म् देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा ।।

इनसे मध्य वेदी में दो आज्याहुति ।

ओ३म् ऊर्ध्वायां दिशः शालायां नमो महिम्ने स्वाहा । ओ३म् देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा ।। इनसे भी दो आहुति मध्यवेदी में । और -

ओ३म् दिशोदिशः शालायां नमो महिम्ने स्वाहा ।
ओ३म् देवेभ्यः स्वाह्येभ्यः स्वाहा ।।

इनसे भी दो आज्याहुति मध्यस्थ वेदी में देके, पुनः पूर्व दिशास्थ द्वारस्थ वेदी में अग्नि को प्रज्जवलित करके वेदी के दक्षिण भाग में ब्रह्मासन तथा होता आदि के आसन पूर्वोक्त प्रकार बिछवा, उसी वेदी के उत्तर भाग में एक कलश स्थापन कर स्थालीपाक बनाके, प्रथम निष्क्रम्यद्वार के समीप जा, ठहर कर ब्रह्मादि सहित गृहपति मध्यशाला में प्रवेश करके ब्रह्मादि को दक्षिणादि आसन पर बैठा, स्वयं पूर्वाभिमुख करके संस्कृत घी, अर्थात् जो गरम कर, छान, जिसमें कस्तूरी आदि सुगन्ध मिलाया हो, पात्र में लेके सबके सामने एक-एक पात्र भरके रक्खें और चमचा में लेके -

ओ३म् वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान्त्स्वावेशो अनमीवो भवा नः ।
यत्त्वेमहेप्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदेशं चतुष्पदे स्वाहा ॥1॥

वास्तोष्पते प्रतरणो न एधि गयस्फानो गोभिरश्वेभिरिन्दो ।
अजरासस्ते सख्ये स्याम पितेव पुत्रान् प्रति नो जुषस्व स्वाहा ।।2।।

वास्तोष्पते शग्मया संसदा ते सक्षीमहि रण्वया गातुमत्या ।
पाहि क्षेम उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः स्वाहा ।।3।।

ऋ० म० 7। सू0 54 ।।

अमीवहा वास्तोष्पते विश्वा रूपाण्याविशन्।
सखा सुशेव एधि नः स्वाहा ।।4।।
ऋ० म० 7 । सू0 55 | मं0 1।।

इन चार मन्त्रों से चार आज्याहुति देके, जो स्थालीपाक, अर्थात् भात बनाया हो, उसे दूसरे कांसे के पात्र में लेके, उस पर यथायोग्य घृत सेचन करके अपने-अपने सामने रक्खें और पृथक्-पृथक् थोड़ा-थोड़ा लेकर -

ओ३म् अग्निमिन्द्रं बृहस्पतिं विश्वाँश्च देवानुपह्वये ।
सरस्वतीञ्च वाजीञ्च वास्तु मे दत्त वाजिनः स्वाहा ॥1॥

सर्पदेवजनान्त्सर्वान् हिमवन्त सुदर्शनम् ।
वसूँश्च रुद्रानादित्यानीशानं जगदैः सह ।
एतान्त्सर्वान प्रपद्येहं वास्तु मे दत्त वार्जिनिः स्वाहा ॥2॥

पूर्वाह्णम्पराणं चोभौ मध्यन्दिना सह ।
प्रदोषमर्धरात्रं च व्युष्टां देवीं महापथाम्।
एतान्त्सर्वान् प्रपद्येहं वास्तु मे दत्त वाजिनः स्वाहा ॥3॥

ओ३म् कर्तारञ्च विकर्तारं विश्वकर्माणमोषधींश्च वनस्पतिन् ।
एतान्त्सर्वान् प्रपद्येहं वास्तु मे दत्त वाजिनः स्वाहा ॥ 4॥

धातारं च विधातारं निधीनां च पति सह ।
एतान्त्सर्वान् प्रपद्येहं वास्तु मे दत्त वाजिनः स्वाहा ॥5॥

स्योन शिवमिदं वास्तु दत्तं ब्रह्मप्रजापती ।
सर्वाश्च देवताश्च स्वाहा ।।6।।

स्थालीपाक, अर्थात् घृतयुक्त भात की इन छह मन्त्रों से छह आहुति देकर कांस्यपात्र में उदुम्बर- गूलर और पलाश के पत्ते, शाड्वल-तृणविशेष, गोमय, दही, मधु, घृत, कुशा और यव को लेके उन सब वस्तुओं को मिलाकर -

ओ३म् श्रीश्च त्वा यशश्च पूर्वे सन्धौ गोपायेताम् ।
इस मन्त्र से पूर्व द्वार।

यज्ञश्च त्वा दक्षिणा च दक्षिणे सन्धौ गोपायेताम् ।।
इससे दक्षिण द्वार ।

अन्नञ्च त्वा ब्राह्मणश्च पश्चिमे सन्धौ गोपायेताम् ।।
इससे उत्तर द्वार के समीप उनको बखेरे और जलप्रोक्षण भी करे ।

केता च मा सुकेताच पुरस्ताद् गोपायेतामित्यग्रिर्वै केताऽऽदित्यः सुकेता तौ प्रपद्ये ताभ्यां नमोऽस्तु तौ मा पुरस्ताद् गोपायेताम् ॥1॥

इससे पूर्व दिशा में परमात्मा का उपस्थान करके दक्षिण द्वार के सामने दक्षिणाभिमुख होके-

दक्षिणतो गोपायमानं च मा रक्षमाणा च दक्षिणतो गोपायेतामित्यहर्वै गोपायमान रात्री रक्षमाणा ते प्रपद्ये ताभ्यां नमोऽस्तु ते मा दक्षिणतो गोपायेताम् ॥2॥

इस प्रकार जगदीश का उपस्थान करके पश्चिम द्वार के सामने पश्चिमाभिमुख होके-

 

दीदिविश्च मा जागृविश्च पश्चाद् गोपायेतामित्यन्नं वै दीदिवि: प्राणो जागृविस्तौ प्रपद्ये ताभ्यां नमोऽस्तु तौ मा पश्चाद् गोपायेताम्।।3।।

इस प्रकार पश्चिम दिशा में सर्वरक्षक परमात्मा का उपस्थान करके उत्तर दिशा में उत्तर द्वार के सामने उत्तराभिमुख खड़े रहके-

 

अस्वप्रश्च माऽनवद्राणश्चोत्तरतो गोपायेतामिति चन्द्रमा वा अस्वप्रो वायुरनवद्राणस्तौ प्रपद्ये ताभ्यां नमोऽस्तु तो मोत्तरतो गोपायेताम्।।4।।

धर्मस्थूणाराज श्रीसूर्यामहोरात्रे द्वारफलके ।
इन्द्रस्य गृहा वसुमन्तो वरुथिनस्तानहं प्रपद्ये सह प्रजया पशुभिस्सह ।
यन्मे किञ्चिदस्त्युपहूतः सर्वगणः सखा यः साधुसंमतस्तां त्वा शाले अरिष्टवीरा गृहा नः सन्तु सर्वतः ।।5।।

इस प्रकार उत्तर दिशा में सर्वाधिष्ठाता परमात्मा का उपस्थान करके सुपात्र, वेदवित्, धार्मिक होता आदि सपत्नीक ब्राह्मण तथा इष्ट-मित्र और सम्बन्धियों को उत्तम भोजन कराके, यथायोग्य सत्कार करके दक्षिणा दे, पुरुषों को पुरुष और स्त्रियों को स्त्री प्रसन्नतापूर्वक विदा करें और वे जाते समय गृहपति और गृहपत्नी आदि को -

 

'सर्वे भवन्तोऽत्राऽऽनन्दिताः सदा भूयासुः ।।'
इस प्रकार आशीर्वाद देके अपने-अपने घर को जावें ।

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